यहाँ के लोग पूरे शरीर पर लिखाते है राम-राम

छत्तीसगढ़ के रामनामी संप्रदाय से जुड़े लोग अपने पूरे शरीर पर “राम-राम” का गुदना अर्थात स्थाई टैटू बनवाते हैं, राम-राम लिखे कपड़े धारण करते हैं, राम शब्द छपे शॉल और मोर के पंखों से बने मुकुट पहनते हैं, घरों की दीवारों पर राम-राम लिखवाते हैं, आपस में एक दूसरे का अभिवादन राम-राम कह कर करते हैं, यहां तक कि एक-दूसरे को राम-राम के नाम से ही पुकारते भी हैं।

Ramnami from Chattisgarh
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रामनामी संप्रदाय के लिए राम का नाम उनकी संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। एक ऐसी संस्कृति, जिसमें राम नाम को कण-कण में बसाने की परम्परा है। ये और बात है कि इस संप्रदाय की आस्था न तो अयोध्या के राम में है और ना ही मंदिरों में रखी जाने वाली राम की मूर्तियों में। इनका राम हर मनुष्य में, पेड़-पौधों में, जीव-जन्तुओं में और समस्त प्रकृति में समाया हुआ है।

रामनामी समाज की शुरुआत

छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चांपा के एक छोटे से गांव चारपारा में 1870 में जन्में एक दलित युवक परशुराम ने रामनामी समाज की स्थापना की थी। 1890 में सबसे पहले परशुराम ने अपने माथे पर “राम” लिखवाया था। परशुराम ने ऐसा विरोध जताने के लिए किया था क्यूंकि उन्हें दलित जाति का होने के नाते मंदिर में प्रवेश करने से रोक दिया गया था। सबसे पहले इसके अनुयायी चमार जाति के थे लेकिन बाद में इसे ब्राह्मण, कुर्मी और अन्य लोगों ने भी अपनाया।

कुछ लोग रामनामी संप्रदाय की स्थापना को भक्ति आंदोलन से जोड़ते है। और कुछ इसे सामाजिक और दलित आंदोलन के रुप में देखते हैं।

एक रामनामी के अनुसार, दो सप्ताह की उम्र में ही उसके पूरे शरीर को पानी के साथ केरोसीन लैम्प से निकलने वाले काजल से बने डाई का उपयोग करके पूरे शरीर पर टैटू बनाए गए। पूरे शरीर पर टैटू बनाने में करीब 18 साल का समय लगा।

Ramnami from Chattisgarh
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रामनामी समाज की परम्पराएँ

इस समाज के लोग प्रभु के निराकार रूप की भक्ति को ही जीवन का आधार मानते हैं। इसीलिए तन पर राम नाम का गोदना धारण करते हैं। जब आपस में मिलते हैं तो अभिवादन भी राम-राम कहकर ही कहते हैं। इस पंथ के प्रमुख प्रतीकों में जैतखांभ या जय स्तंभ, मोर पंख से बना मुकुट, शरीर पर राम-राम का गोदना, राम नाम लिखा कपड़ा और पैरों में घुंघरू धारण करना प्रमुख है।

इस समाज में पैदा होने वाले बच्चे के पूरे शरीर पर ‘राम’ लिखा जाता है. लेकिन ऐसा नहीं करने पर दो साल के होने तक बच्चे की छाती पर राम का नाम लिखना अनिवार्य है। मान्यता के अनुसार रामनामी शराब, सिगरेट-बीड़ी का सेवन नहीं करते, इसी के साथ राम का जाप रोजाना करना होता है। जाति, धर्म से दूर हर व्यक्ति से समान व्यवहार करना होता है।

प्रत्येक रामनामी को घर में रामायण रखनी होती है। इनमें से ज्यादातर लोगों ने अपने घरों की दीवार पर काली स्याही से दीवार के बाहरी और अंदर के हिस्से पर ‘राम राम’ लिखा हुआ है।

रामनामियों की पहचान राम-राम का नाम लिखे अंग के मुताबिक की जाती है। शरीर के किसी भी हिस्से में राम-राम लिखवाने वाले रामनामी, माथे पर दो राम नाम अंकित करने वाले को शिरोमणी, और पूरे माथे पर राम नाम लिखवाने वाले को सर्वांग रामनामी, और पूरे शरीर पर राम नाम लिखवाने वाले को नखशिख रामनामी कहा जाता है।

मूलत: जांजगीर-चांपा, रायगढ़, बलौदाबाजार, भाठापारा, महासमुंद और रायपुर जिले के लगभग सौ गांवों में आज भी इनका बसेरा है, लेकिन गिनती के ही परिवार बचे हैैं। दरअसल, राम नाम का गोदना तन पर, यहां तक कि चेहरे पर भी धारण करने की इनकी इस परंपरा का धीरे-धीरे लोप होता गया।

लुप्त होती परंपरा

रामनामियों के सामने अब अपनी पहचान का संकट खड़ा हो गया है। इनकी संख्या धीरे धीरे काम हो रही है। इसका मुख्य कारण है नई पीढ़ी का इस परंपरा के प्रति उदासीन होना। नयी पीढ़ी के लोग केवल माथे या हाथ पर एक या दो बार राम-राम गुदवा कर किसी तरह अपनी परम्परा का निर्वाह कर लेना चाह रही है। जाहिर है पश्चिमीकरण के कुछ आयामों ने इन्हें भी प्रभावित किया है।

एक युवा रामनामी के मुताबिक “मैंने अपने माथे पर दो जगह राम नाम लिखवाया है। इससे ज्यादा मुझमें न तो सामर्थ्य है और न ही इच्छा-शक्ति कि मैं पूरे चेहरे या पूरे शरीर पर राम नाम लिखवा लूं।”

एक बुजुर्ग रामनामी के अनुसार “नयी पीढ़ी में राम नाम गुदवाने का आकर्षण कम हो रहा है। बच्चे अब शरीर पर कुछ लिखवाने से डरते हैं।”

सौंदर्य के नए पैमानों और आधुनिक जीवन के चाहत ने इस संप्रदाय के ढाँचे को तोड़ना शुरु कर दिया है।

एक रामनामी महिला के मुताबिक , “धर्म-कर्म से ज़्यादा लोग दिखावे में लगे हुए हैं। अब कुछ नहीं किया जा सकता। शायद 5 साल या 10 साल बाद, 120 सालों का रामनामी समाज खत्म हो जाएगा, एक युग खत्म हो जाएगा।”

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