रमेश अपने माता-पिता का इकलौता पुत्र था। पिता दीनानाथ एक साधारण किसान थे, जिनकी आजीविका का एकमात्र साधन कृषि थी। मां सुनीता अपने घर का काम-काज खत्म करने के बाद आस-पास के जमींदारों के यहां जाकर उनके घर का काम कर दिया किया करती थीं, जिससे जमीदारों की औरतों के सिर से काम का बोझ हल्का हो जाता था और बदले में वे उन्हें कुछ अनाज, पैसे व कभी-कभार अपनी कोई पुरानी साड़ी दे दिया करती थीं।
दिन रात खेत में कठिन परिश्रम करके उसके पिता जो अनाज उगाते, उसका कुछ भाग वे अपने और अपने परिवार के लिए बचाकर शेष पास के बाजार में बेंच दिया करते थे। जो पैसे मिलते उससे घर का छोटा मोटा खर्च व जरूरतें पूरी हो जाती। इस प्रकार किसान दीनानाथ जैसे-तैसे करके अपने परिवार को दो वक्त का भोजन दे पाते थे परन्तु, उनका पुत्र रमेश अपने पिता की यह सब दशा देखते हुए भी ध्यान न देता था। उसे तो बस अपने शौक, अपनी मनमानी ही प्यारी थी।
वह दोपहर तक सोकर उठता। तब तक पिता खेत पर और मां जमींदारों के यहां काम करने जा चुकी होती थीं। बिस्तर से उठ हाथ-मुँह धोकर जल्दबाज़ी में जो भी मां घर में बना रख जाती वही खा पीकर अफसरों के जैसे नए कपड़े पहन, तैयार हो निकल जाता अपने दोस्तों के साथ।
देर रात घर आता मां पूछती तो उनपर चिल्लाकर कहता- अब मैं बड़ा हो गया हूँ अपना भला-बुरा समझता हूँ। इसलिए आप लोग अपना काम कीजिए मेरी चिंता मत कीजिए। मां बेचारी चुप हो जाती सोचती. आज-कल का लड़का है, डांटने फटकारने से कहीं कोई गलत कदम न उठा ले।
दिन बीतते गए….. रमेश के अमीरों वाले शौक अब धीरे-धीरे आदतों में बदलने लगे। गरीब होते हुए भी उसके अमीरों जैसे ठाठ थे। नए महंगे कपड़े, जूते, अच्छा खाना ये सब पहले उसके शौक का हिस्सा थे पर मां-बाप के पुत्र-स्नेह के कारण कुछ छूट व अपनी लापरवाही की वजह से अब उसकी आदतों में शामिल हो गए थे। अब वह किसी मनपसंद चीज़ की फरमाइश करता और उसे पूरा न किया जाता तो वह मां पर चीखता चिल्लाता, नाराज़ हो खाना न खाता, पिता को इस गरीबी का जिम्मेदार बताकर कहता कि, अगर पिता जी ने शुरू से किसी कारोबार में जी लगाया होता तो आज मुझे भी मेरी पसंद की ज़िन्दगी जीने को मिलती। मां बेचारी क्या करती, चुपचाप अपने बेटे की भली बुरी बातें सुनतीं और सहन न होने पर आंसू बहाती।
एक दिन रमेश अपने पिता के पास कुछ पैसे मांगने गया। पिता दीनानाथ के यह कहकर मना कर देने पर कि, बेटा ! मैं तुझे पैसे कहाँ से दूं., तू तो जानता है कि, मैं इतनी मेहनत करके भी तुझे और तेरी मां को दो वक़्त की रोटी ही खिला पाता हूँ और ऊपर से तेरे नखरे…मैं कहाँ से लाऊं इतने पैसे.? रमेश निराश हो चला आया इस उम्मीद से कि, मां से मांग लेगा पर मां ने भी पैसे न होने का दुःख जताकर इनकार कर दिया। जब रमेश को कहीं से पैसे मिलने की आशा न रही तो उसने क्रोध और आवेश में घर छोड़ने का निश्चय कर लिया और रात को अपने मां पिताजी के सो जाने के बाद मौका देख घर से भाग निकला।
सुबह होते होते वह अपने घर से काफी दूर आ चुका था…चलते चलते वह थक चुका था और भूख भी लगी थी., सोच रहा था कहीं कुछ खाने को मिल जाता तो बड़ा अच्छा होता। उसे ख्याल आया कि, क्यों न वह अपने किसी मित्र के यहां कुछ दिन ठहर जाए। कुछ खाने को भी मिल जाएगा और वह थोड़ा आराम भी कर लेगा।
यह सोच रमेश अपने एक मित्र संतोष के घर पहुँचा, दरवाज़ा खटखटाया तो संतोष बाहर आया। उसने इतने दिनों बाद अपने मित्र को देखा तो बड़ा खुश हुआ। संतोष रमेश को घर के अंदर ले गया, चाय पानी पिला कुछ बातें कर दोनों मित्रों ने साथ-साथ खाना खाया। संतोष ने रमेश से कुछ दिन उसके पास ही रुकने को कहा तो रमेश ने यह सोचकर कि, चलो जब तक रहने का कुछ बंदोबस्त नहीं हो जाता मैं यहीं रुक जाता हूँ कम से कम बैठे बैठाये अच्छा खाना तो मिलेगा ही।
अब वह अपने मित्र के घर ठाठ से रहने लगा। रोज सुबह संतोष काम पर चला जाता आते वक़्त ताज़े फल, सब्जियां आदि लेकर आता। रमेश अब और भी मज़े से रहने लगा उसे किसी बात की कोई चिंता न थी न अपने बूढ़े मां- बाप की और न ही अपने भविष्य की। दिन भर घर में खाली पड़ा रहता न अपने रहने का कोई बंदोबस्त करता और न ही अपने मित्र की मदद। संतोष कुछ कहता न था पर वह भी यह सब देख देखकर परेशान था। रमेश को उसके घर ठहरे हुए एक महीना बीतने को था और वह अभी भी मुफ्त की ही रोटियां तोड़ता था।
एक दिन रमेश की इन हरकतों से परेशान संतोष से न रहा गया तो उसने विनम्रतापूर्वक रमेश से कह दिया कि, मित्र ! तुम नाहक अपना समय बर्बाद करते हो कुछ काम क्यों नहीं ढूंढ लेते, तुम्हारा मन भी लगा रहेगा और कुछ पैसे भी मिल जाया करेंगे, जिससे तुम्हारी अपनी ज़रूरतें पूरी हो जाएंगी..तुम्हारा मित्र होने के नाते मुझे तुम्हारी चिंता होती है। मैं कब तक अपने परिवार के साथ-साथ तुम्हारी भी ज़िम्मेदारी उठाऊंगा। संतोष की बातें सुनकर रमेश को दुःख तो हुआ पर वह क्या करता उसके पास कोई और ठिकाना भी तो नहीं था।
अगली सुबह रमेश वहां से निकल पड़ा…कहाँ जाना था इसका उसने निश्चय नही किया था। उसके पास न तो पैसे थे और न ही कुछ काम। वह बिना कुछ खाये पीये लगातार दो-तीन दिनों तक चलता रहा। भूख और प्यास से उसके प्राण सूख रहे थे, लग रहा था मानो अब उससे एक कदम भी और न चला जाएगा। चलते-चलते कुछ दूरी पर उसे एक रेस्तरां दिखाई दिया। उसे भूख तो लगी थी पर जेब में फूटी कौड़ी न थी, वह खाना खाता भी तो कैसे ?
आज जीवन में पहली बार उसने स्वयं को इतना लाचार और बेसहारा महसूस किया..अब उसे मां के बनाये हुए उस खाने की याद आ रही थी, जो उसे बिना कुछ मेहनत-मजदूरी के ही मिल जाया करता था। वह अपनी गलतियों पर पछता रहा था कि, अगर उसने ऐसा कदम न उठाया होता तो आज उसे इन परिस्थितियों से जूझना न पड़ता। उसने निश्चय किया कि, अब वह भी अपने लिए कुछ काम ढूंढेगा, मेहनत करेगा और अपने मां पिताजी की सेवा करने अपने गांव लौट जाएगा।
यही सब सोचते सोचते वह रेस्तरां की ओर बढ़ा, वहां पहुंचा तो रेस्तरां के मालिक ने बिना पैसों के खाना देने से साफ मना कर दिया। रमेश के बहुत आग्रह करने के बाद भी वह न माना..एक भला आदमी वहीं बगल में बैठा यह सब देख रहा था। रमेश को भूखा-प्यासा देख उसका मन पसीज गया | उसने रमेश को अपने पास बुलाकर कहा बेटा ! तुम मेरे साथ चलो, मैं तुम्हें खाना खिलाऊंगा।
भूख प्यास से व्याकुल रमेश ने झट उस आदमी की बात मान ली और उसके साथ घर की ओर चल पड़ा। उस आदमी ने घर पहुंच कर रमेश को भरपेट भोजन कराया और अपने घर पर ही कुछ देर आराम करने को कहा। भोजन करने के बाद रमेश ने उस भले मानुस का सहृदय धन्यवाद किया और उसके इस उपकार के बदले में उसका कुछ काम करने की विनती की। संयोग से वह आदमी एक व्यापारी था और उसे अपने व्यापार की देख-रेख के लिए एक सच्चे और ईमानदार व्यक्ति की ज़रूरत थी। व्यापारी को रमेश एक अच्छा और समझदार व्यक्ति लगा। उसने रमेश के कहे अनुसार उसे काम पर रख लिया और साथ में उसे रहने की जगह भी दी।
अब रमेश रोज समय से अपने काम पर जाता और पूरी निष्ठा और लगन से अपना काम करता। अब उसे अहसास हो चुका था कि, बिना परिश्रम के मनचाही ज़िन्दगी नहीं मिल पाती। अब वह पहले वाला रमेश न रहा, जो अपने पिताजी के खून पसीने की कमाई को अपने रोज के ऐश-ओ-आराम में उड़ा देता था। अब वह पैसे वहीं खर्च करता था जहां उसे ज़रूरत होती थी, फ़िज़ूलखर्ची उसने छोड़ दी थी।
समय बीतता गया….. रमेश ने काफी पैसे इकट्ठा कर लिए थे और अब उसने अपने मां-पिताजी के पास अपने गांव लौटने की सोची। यह सोच वह अपने गांव की ओर चल दिया।
इधर रमेश के मां-बाप, जिन्होंने रमेश के लौटने की आस छोड़ ही दी थी, एक सुबह अचानक अपने बेटे को अपनी आंखों के सामने देख खुशी से रो पड़े। मां रमेश के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए बोलीं..तू कहाँ चला गया था बेटा, ऐसे कोई बिना बताये घर छोड़कर जाता है क्या, तुझे तेरे बूढ़े मां-बाप का ज़रा भी ख्याल न आया.? पिताजी ने भी दो चार फटकार लगाई और फिर प्यार से गले लगा लिया।
रमेश ने अपने मां-पिताजी से अपनी भूल की क्षमा मांगी और दोबारा ऐसी गलती न करने का आश्वासन दिया। अब रमेश अच्छा, समझदार और विनम्र हो गया था। वह पिताजी के साथ खेत के काम में, मां का घर के काम में हाथ बंटाता और उनकी सेवा करता था।