जीवन में कितना सूनापन, पथ निर्जन है, एकाकी है: असमंजस
जिनका कोई भी आज नहीं, मिटकर उनको अपना लूँगा।
जिनका कोई भी आज नहीं, मिटकर उनको अपना लूँगा।
आभारी हूँ मैं उन सबका, दे गए व्यथा का जो प्रसाद, जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला, उस उस राही को धन्यवाद।
तिल-तिल मिटूँगा पर दया की भीख मैं लूँगा नहीं वरदान माँगूँगा नहीं।।
मानते जो भी है सुनते हैं सदा सबकी कही, जो मदद करते हैं अपनी इस जगत में आप ही
सागर की अपनी क्षमता है, पर माँझी भी कब थकता है, जब तक साँसों में स्पन्दन है, उसका हाथ नहीं रुकता है
जब तक न मंजिल पा सकूँ, तब तक मुझे न विराम है, चलना हमारा काम है।
समर शेष है, जनगंगा को खुल कर लहराने दो, शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो,
तीन दिवस तक पंथ माँगते, रघुपति सिंधु किनारे, बैठे पढ़ते रहे छन्द, अनुनय के प्यार- प्यारे।
यह देख, गगन मुझमें लय है, यह देख, पवन मुझमें लय है, अमरत्व फूलता है मुझमें, संहार झूलता है मुझमें।
अंबर के आंगन को देखो, कितने इसके तारे टूटे, कितने इसके प्यारे छूटे, जो छूट गए फिर कहाँ मिले, पर बोलो टूटे तारों पर, कब अंबर शोक मनाता है
दिशा दीप्त हो उठी प्राप्तकर, पुण्य-प्रकाश तुम्हारा, लिखा जा चुका अनल-अक्षरों, में इतिहास तुम्हारा।
तू ख़ुद की खोज में निकल. तू किसलिए हताश है, तू चल तेरे वजूद की, समय को भी तलाश है..